एक फक़ीर सन्यासी का वाकिया (कहानी)
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इस मुद्दई ने दीदार के लिए उस को मुन्तख़ब किया (चुना) और उन साहब को रात के वक़्त ले गया और मस्जिद में पहुंच कर उस ने कुछ वज़ीफ़ा बतला दिया कि इस को आँखें बंद कर के पढ़ते रहो और जब मैं कहूँ तो उस वक़्त आँखें खोल देना चुनाँचि थोड़ी देर में आप ने हूँ की और उस शख्स ने आँखें खोल कर देखा तो वाक़ई साड़ी मस्जिद में रौशनी ही रौशनी थी मगर उस के साथ भी देखा कि रौशनी के साथ अपना साया भी है- यह पढ़े लिखे आदमी थे फ़ौरन ख्याल हुआ कि नूर ए हक़ के साथ यह साया कैसा? उस की शान है कि
तजल्ली ए हक़ के होते हुए ज़ुल्मत का निशान कहाँ रह सकता है- उस के बाद उस ने पीछे को जो नज़र की तो देखा वह मुद्दई दिया सलाई सलाई हाथ में लिए खड़ा है------- उस वक़्त दिया सलाई पहली पहली बार चली थी देहात में न पहुंची थी उस कम्बख्त ने देहात में दिया सलाई से यह काम लिया कि लोगों के ईमान को जलाने लगा यह देख कर उस शख्स ने जूता निकाल कर खूब मुरम्मत की कि नामाक़ूल आ अब मैं तुझे खुदा दिखलाऊँ तू मख्लूक़ के ईमान को बर्बाद करता है ऐसे भी उस महन्त (साधुओं का सरदार) किया था कि कछुए पर चिराग जला कर तालिब को धोका दिया वह हिन्दू कहता था कि फिर मैं दीदार ही के शोक में मुसलमान हो गया मैं ने उस से कहा कि जब तू खुदा ए तआला को देखने के वास्ते मुसलमान हुआ है तो यह बात तो इस्लाम से भी दुनियां में हासिल नहीं हो सकती हाँ (इंशाअल्लाह) आखरत में यह दौलत हासिल होगी तो जब तू दुनियां में खुदा को देखेगा नहीं फिर मुसलमान ही कैसे रहेगा- उस शख्स ने कहा मुझे इस्लाम में एक ऐसी खूबी साबित होती है कि चाहे दुनियां में खुदा का दीदार हो न हो मगर इस्लाम को न छोड़ूंगा- मैं ने कहा वह खूबी किया है कहने लगा कि इस्लाम में तौहीद बहुत कामिल है मैं ने कहा तुझे इस्लाम की तौहीद का कामिल होना किस बात से मालूम हुआ- कहा इस तरह मालूम हुआ कि जब कोई दुसरे मज़हब का आदमी इस्लाम लाता है तो मुसलमान उस को उसी वक़्त अपने से अफ़ज़ल (बेहतर) जानने लगते हैं और उस के साथ खाने पीने लगते हैं-
फायदा यह तौहीद ए इस्लामी का असर है, यह बात किसी मज़हब में नहीं-
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